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Juvenile Delinquency in Psychology | Juvenile Delinquency b.ed notes in hindi

बाल-अपराध JUVENILE DELINQUENCY IN PSYCHOLOGY


"Delinquency, as a social pröblem, appears to be on the increase." Medinnus and Johnson


बाल-अपराध का अर्थ व परिभाषा
(MEANING AND DEFINITION OF DELINQUENCY)


किशोर अपराध और बाल अपराध लगभग एक समान प्रत्यय हैं, किन्तु कुछ लोग बाल अपराध पर अधिक बल देते हैं, अतः उस पर पृथक से विचार किया जा रहा है।।


वर्तमान समय में हम देखते हैं., कि बालकों में भी कानून का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति का विकास होता जा रहा है। वयस्क जब अपराध करते हैं, तो उन्हें जेल भेजने का प्रयत्न किया जाता है। कुछ समय पूर्व बालकों को भी अपराध करने पर जेल भेजा जाता था, किन्तु लोगों ने इस समस्या पर विचार करना प्रारम्भ कर दिया। आखिर बालक अपराध क्यों करते हैं ? इसके लिये क्या बालक ही दोषी हैं ? बाल अपराध में क्या समाज का दोष नहीं हैं ?

 समाजशास्त्रियों एवं मनोवैज्ञानिकों ने इन प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयत्न किया है । इस अध्याय में हम बाल अपराध के कारणों पर विचार करेंगे, किन्तु कारणों को जानने से पहले बाल अपराध को समझना अत्यन्त आवश्यक है।


बाल अपराध क्या है ? (What is Juvenile Delinquency ?)

 

सभ्यता के पथ पर बढ़ते हुये समाज ने अपने अन्दर अनेकों परिवर्तन किये हैं। समाज का उचित संचालन करने के लिये समाज ने स्वयं ही कुछ नियमों का निर्माण किया है। इन नियमों का पालन करना समाज के प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य है। इन नियमों का पालन न करना ही अपराध है।

हम सब यह जानते हैं कि देश की बाह्य रक्षा एवं आन्तरिक रक्षा करना सरकार का एक प्रमुख कार्य है। जनता के जानमाल की रक्षा के लिये सरकार कुछ नियम बना देती है । इन नियमों का पालन न करना अपराध है। दूसरे शब्दों में कानून का उल्लंघन करना अपराध कहा जाता है।


जब कोई व्यक्ति कानून का उल्लंघन प्रथम बार करता है । अर्थात् उसमें अपराध का प्रारंभ ही हुआ है, तो उसे कानून की भाषा में ‘ऑफेण्डर' कहा जाता है। 'ऑफेण्डर' को हम अपनी भाषा में दोषी कह सकते हैं।

जिस व्यक्ति में अपराध की प्रवृत्ति आ जाती है, उसे हम ‘डेलिंकवेन्ट कहते हैं। डेलिंकवेन्ट शब्द को हम संस्कृत गर्भित हिन्दी में कदाचारी कह सकते हैं। इसमें अपराध की प्रवृत्ति के साथ-साथ अपराध की क्रिया भी होती है अर्थात् कदाचारी अपराध करता भी है।

अपराधी की तीसरी श्रेणी आती है, जिसे अंग्रेजी में क्रिमिनल कहते है। क्रिमिनल पूर्णरूपेण अपराधी होता है। इस प्रकार हम देख रहे हैं कि अपराधियों की तीन श्रेणियां हैं - दोषी, कदाचारी एवं अपराधी । हमारा सम्बन्ध यहाँ पर दूसरी श्रेणी के अपराधियों से विशेष रूप से है।

 

भारतीय दण्ड सहिंता की धारा 82 के अन्तर्गत यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि जो बालक सात वर्ष की आयु के नीचे है और अपराध करते हैं, उन्हें दोषी नहीं माना जा सकता है। सात वर्ष से नीचे की आयु के बालक अपने अपराधों के लिये स्वयं उत्तरदायी नहीं हैं। इसी संहिता की धारा 83 में इस आयु को 12 वर्ष तक कर दिया गया है । इस धारा में यह लिखा गया है कि जो बालक अपराध करते समय अपने कदाचार के परिणामों को समझने में असमर्थ है एवं जिनकी वृद्धि में अभी परिपक्वता नहीं आई है; वे यदि 12 वर्ष तक की आयु के भी हों, तो अपराध के दण्ड के लिये स्वयं भागी नहीं होंगे । कानून की भाषा में इस आयु को सुरक्षात्मक आयु कहा जाता है।


सुरक्षात्मक आयु के ऊपर 15 वर्ष की आयु तक के बालक यदि अपराध करते हैं तो उन्हें बाल दोषी की संज्ञा दी जाती है। किसी-किसी राज्य में बाल दोषी को सुरक्षात्मक आयु तथा 14 अथवा 16 वर्ष की आयु के बीच का माना जाता है। प्रत्येक राज्य में बाल दोषी के हितों को ध्यान में रखते हुए कानून बने हैं। बाल दोषी को कठोर कारावास से सदैव मुक्त रखा जाता है।।


बाल दोषी के पश्चात आयु की दृष्टि से नवयुवक दोषी का नम्बर आता है। नवयुवक दोषी 14, 15 अथवा 16 वर्ष की आय के ऊपर होता है। नवयुवक दोषी की आयु की उच्चतम सीमा में राज्यों में भित्रता है। कुछ राज्यों में इस आयु की उच्चतम सीमा 21 वर्ष है। उत्तर प्रदेश में 15 वर्ष की आयु ही अपराधों से सुरक्षा की उच्चतम सीमा है। 15 वर्ष के ऊपर के अपराधियों के साथ उत्तर प्रदेश में सामान्य अपराधियों की भाँति ही व्यवहार किया जाता है । आसाम, बम्बई तथा दिल्ली में यह आय् 16 वर्ष है । बिहार राज्य में 20 वर्ष की आयु तक अपराधियों को कठोर दण्ड से सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया जाता है। अण्डमान और निकोबार द्वीप समूहों में 22 वर्ष तक के प्रौढों के लिये यह सुविधा प्रदान की गई है ।

 

इस प्रकार आयु की दृष्टि से अपराधियों को हम निम्नलिखित चार श्रेणियों में रख सकते है

(i) सुरक्षात्मक आयु के नीचे के अपराधी,

(ii) सुरक्षात्मक आयु तथा 14, 15 अथवा कहीं-कहीं 16 वर्ष के बीच के बाल दोषी।

(iii) बाल दोषी की आयु के ऊपर, किन्तु आयु की एक निश्चित उच्चतम सीमा के नीचे के नवयुवक-दोषी, तथा राज्य द्वारा स्वीकृत आयु की उच्चतम सीमा के ऊपर के वयस्क अपराधी।।


वयस्क अपराधी अपने अपराध का स्वयं उत्तराधी है। वह अपने अपराध के अनुसार आर्थिक दण्ड, कठोर कारावास अंथवा आजन्म कारावास के दण्ड का भागी होता है । बाल अपराधी को इन यातनाओं का सामना नहीं करना पड़ता है। बाल अपराधी से हम बाल दोषी तथा नवयुवक-दोषी दोनों का तात्पर्य इस अध्याय में बाल अपराधी को इसी अर्थ में प्रयुत्त किया जायेगा।


बाल अपराध कई रुपों में देखा जा सकता है। बाल अपराधी किसी व्यक्ति की किसी वस्तु को चुरा सकता है। चोरी के अन्तर्गत हम कई वस्तुओं को ले सकते हैं। कलम, पैन्सिल, स्लेट, तख्ती जैसी छोटी चीजों से लेकर रुपये पैसे जैसी बड़ी-से-बड़ी वस्तुएँ भी बालकों द्वारा चुराई जा सकती है।


बालक डाकुओं की संगति भी कर सकते हैं। कभी-कभी वयस्क डाकू अपने दल की सफलता के लिये भी स्त्रियों, बालकों एवं बालिकाओं को अपने दल में शामिल कर लेते हैं। ऐसे बालक कालान्तर में चलकर स्वयं भी डाकु बन जाते हैं। कुछ बालक वीर-पूजा की भावना से ओत-प्रोत होकर डाकुओं के दल में शामिल हो जाते हैं।

 

कुछ बालक जेब काटने की कला सीख जाते हैं। रेल के डिब्बे में दो तीन बालक मिलकर कभी-कभी गाना गाने लगते हैं। लोगों का ध्यान गाने की ओर जाते ही कोई अन्य बालक (जो प्रायः आपस में साँठ-गाँठ किये रहते है) यात्रिओं की जेबों पर अपना ध्यान जमा देता है। भीड़ में तो कहना ही क्या है। बस से उतरते समय या उस पर चढते समय यात्रियों की जेबें काटकर सभी रुपये निकाल लेना इनके बायें हाथ का खेल है।


किसी मन्दिर में दर्शनार्थ जाती हुई भीड़ में भी जेबे काटने की घटनाएँ घट जाती है। बाहर उतारे हुये जूते भी कभी-कभी गायब हो जाते हैं। किसी की सुन्दर लाठी को देखकर भी कभी-कभी बालक उसे झाड़ देते हैं। कुछ की टोपी व कुछ का अंगोछा गायब हो जाना भी ऐसे अवसर पर असम्भव नहीं होता।


बिना टिकट यात्रा करना, टिकट के लिये बिना लाइन में खड़े ही टिकट लेने का प्रयल करना, डिब्बे में पूरी सीट पर कब्जा किये रहना तथा अन्य मुसाफिरों को खड़ा रखना, बिना आवश्यकता के ही जंजीर खींच लेना, रेलवे की सम्पत्ति को चुरा लेना अथवा नष्ट करना, रेलवे कर्मचारियों को परेशान करना और कभी-कभी पीट भी देना आदि ऐसे कार्य हैं जो रेलवे के कानून के विरुद्द हैं। यदि कोई बालक ऐसा कार्य करता है, तो उस कार्य को हम बाल अपराध के अन्तर्गत ही लेंगे।


कभी-कभी बालक आबकारी के नियमों का उल्लंघन भी करते हैं। गाँजा, चरस, अफीम आदि का भी ये खुल्लम-खुल्ला सेवन करते हैं। शराब पीने की आदत भी पड़ जाती है। महुए से शराब बनाना भी ऐसे बालक सीख लेते हैं और चोरी से शराब बनाकर पीते हैं।

 

सार्वजनिक सम्पत्ति को भी बालक हानि पहुँचा सकते हैं। सार्वजनिक स्थान पर लहराते हुए तिरंगे झण्डे को फाड़ सकते हैं। गाँधी-चबुतरा को नष्ट कर सकते हैं। पंचायत घर की बल्लियों को हटाकर उसके छप्पर व खपरैल को नष्ट कर सकते हैं। इसी प्रकार के अन्य सार्वजनिक स्थानों को वह गन्दा कर सकते हैं।


कभी-कभी बालक राज्य द्वारा बनाये गये नियमों का भी जान बुझकर उल्लंघन करते हैं। जहाँ साइकिल रखना मना है, वहाँ साइकिल रखेंगे, जहाँ पेशाब करना मना है, वहीं अपनी लघुसंका का समाधान करेंगे, जहाँ प्रवेश वर्जित है, वहाँ जबदस्ती घुस जायेंगे । महिला स्नानागार में जान बूझकर बड़ी शान से नहाने चले जायेंगे तथा इसी प्रकार के अन्य नियमों का उल्लंघन करने में वे अपना गौरव समझेंगे ।


कुछ बालकों में चारित्रिक दोष आ जाते हैं। वे अपने से छोटे बालकों का चरित्र भ्रष्ट करने पर तुल जाते हैं। किसी लडकी को एकांत में पाकर उसके साथ बलात्कार करना प्रारंभ कर देते हैं। चौराहे पर खडे होकर अपशब्द बकते हैं। किसी चूपचाप चली जा रही बालिका पर ताने कसने लगते हैं। इसी प्रकार के अन्य अपराध भी बालक कर बैठता है। नियमों का उल्लंघन करना अपराध है। बालक कभी-कभी बिना जाने समझे अपराध करता है। कभी-कभी वह जान बूझकर अपराध करता है।


प्रसिद्ध समाजशास्त्री इलिएट एवं उनके सहयोगी मैरिल ने अपराध का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है - अपराध एक कार्य है, जो कानून द्वारा वर्जित है, जिसके कर्ता को मृत्युदंड, जुर्माना, जेल, न्यायालय या सुधार गृह में बन्द, जीवन व्यतीत करने के लिये दण्ड दिया जा सकता है।


विभिन्र देशों में बाल अपराधियों की निम्नतम और उच्चतम आयु विभिन्न है। भारत में उसी बालक या किशोर का समाज विरोधी कार्य 'अपराध' माना जाता है, जिसकी निम्नतम आयु 7 वर्ष और अधिकतम आयु 16 वर्ष की होती है।



हम बाल-अपराध और बाल-अपराधी से सम्बंधित कुछ परिभाषाएँ अंकित कर रहे हैं, यथा

 

1. वेलेन्टाइन : मोटे तौर पर, 'बाल-अपराध' शब्द किसी कानुन के भंग किये जाने का उल्लेख करता है।


"Broadly speaking, the teim 'delinquency' refers to the breaking of some law."


-Valentine 


2. स्किनर : बाल-अपराध की परिभाषा किसी कानून के उस उल्ल्ंघन के रूप में की जाती है, जो किसी वयस्क द्वारा किये जाने 'पर अपराध होता है।


"Juvenile delinquency is defined as the violation of a law that, if committed by an adult, would be a crime."- Skinner


3. क्लासमियर व गुड्विन : बाल-अपराधी वह बालक या युवक होता है, जो बार-बार उन कार्यो को करता है, जो अपराधों के रूप में दण्डनीय हैं।


"A delinquent is a child or youth, who repeatedly commits acts which are punishable as crimes.-  Klausmeier and Goodwin


4. गुड : 'कोई भी बालक, जिसका व्यवहार सामान्य सामाजिक व्यवहार से इतना भिन्न हो जाय कि उसे समाज-विरोधी कहा जा सके, बाल-अपराधी है। 


"Juvenile delinquent is any child whose conduct deviates sufficiently from normal social usage that it may be labeled anti-social. -  "Good

 

5. डॉ. सेथना -"बाल अपराध में एक स्थान विशेष पर उस समय लागू कानून द्वारा निर्धारित एक निश्चित आयु के बालक या युवक द्वारा किये गये अनुचित कार्य सम्मिलित हैं।"


"Juvenile delinquency is involved wrong doing by a child or by a person who is under an age specified by law (for the time being in force) of the place concerned."


-Dr. Sethna


6. हीली- "वह बालक जो समाज द्वारा स्वीकृत आचरण का पालन नहीं करता, अपराधी कहा जाता है।"


"A child who deviates from the social norms of behayiour is called delinquent.


-Healy


7. मार्टिन न्यूमेयर : "जो समाज विरोधी व्यवहार व्यक्तिगत तथा सामाजिक विघटन उत्पत्र करता है वह बाल अपराध कहा जा सकता है।"


"Delinquency implies form of antisocial behaviour involving personal and social disorganisation.-  M. Newmeyer



बालापराध : विभिन्र मत
(DELINQUENCY : VARIOUS VIEWS)

 

समाज में अनेक वर्ग हैं। इन वर्गो का प्रत्येक सदस्य बालापराधी को अपने ही ढंग से देखता है। बालापराधी, एक साथ अपराधी, बालक एवं सहानुभूति का पात्र है। समाज में कुछ वर्ग ऐसे भी हैं, जिनमें अपराध करना एक रिवाज है।

भारत में अपराधी जातियों की कमी नहीं है, जिनमें बालक से अपराध कराने के लिये मुहूर्त निकलवाया जाता है तथा उस उपलक्ष में विशेष समारोह किया जाता है। विभिन्न व्यक्तियों की दृष्टि में बालापराध की स्थिति प्रस्तुत कर रहे हैं -


(1) मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि से - एक मनोवैज्ञानिक बालापराध को 'सीखना' मानता है, क्योंकि मनोवैज्ञानिक सीखने की क्रिया में विश्वास करता है। अपराध भी सिद्धान्तों पर सीखा जाता है और बालक अपराधी कार्य को उन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर सीखते हैं। सीखने का जहाँ तक प्रश्न है अच्छ या बुरा, जो भी हो, उसने सीखा है, पर समाज जिसे अच्छा नहीं मानता, वह अपराध है।


(2) मनोविश्लेषकों की द्रष्टि से - बालक के अपराध कार्य को एक मनोविश्लेषक दूसरे ही प्रकार से देखता है। वह बालक द्वारा किये गये अपराध को उसके संवेगात्मक द्वंदों परिणाम मानता है। अपराध द्वारा उसने अपने द्वन्द से छुटकारा पाने का प्रयत्न किया है। वह बालक अपने वातावरण से समायोजन करने में असमर्थ है अतः वह द्वंद का शिकार बन गया है। वह क्षण भर के लिए इन ग्रन्थियों पर विजय पाता है।


(3) अध्यापकों की दृष्टि से - अध्यापको का दृष्टिकोण अपराधी बालक के लिए सदैव सहानुभूतिपूर्ण होता है। अध्यापक यह जानता है कि बालक को अपराधी बनाने में किन-किन कारकों ने योग दिया है और उसके व्यवहार को आज विरोधी बनाया है। अध्यापक के दृष्टिकोण के अनुसार एक सीमा तक उसके व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सकता है।

 

(4) अभिभावकों की दृष्टि से - बालापराध के प्रति अभिभावकों की धारणा सर्वथा अलग होती है। वे अपने अनुभव तथा अभिवृत्ति के आधार पर उस बालक के चोरी करने के व्यवहार की आलोचना करते हैं। इस कारण वे एक व्यवहार विशेष को विभिन्न रुपों में देखते हैं। वे बालक के व्यवहार को या तो मानसिक अव्यवस्था का परिणाम समझकर किसी मनोविश्लेषक की सहायता चाहते हैं या सत्ता के प्रति विद्रोह की भावना या ऐसा कार्य जिसके द्वारा परिवार के सम्मान को ठेस पहुँचती हो तथा ऐसी खराब आदत, जिसके छुडाने का प्रयत्न करना चाहिए आदि के रूप में देखते हैं।


(5) अपराधी बालकों के साथियों की दृष्टि से - यदि हम बालक के साथियों की दृष्टि से देखें तो बालक को नाटक के प्रधान कलाकार के रूप में समाज में अभिनय करते हुये देखते हैं। उसके दल के सदस्य उसे अपने हीरो के न्यादर्श के रूप में मानते हैं। वे उससे अपनी अपेक्षा के अनुरूप कार्य कराना चाहते हैं।


(6) पीड़ित व्यक्ति की दृष्टि से - जो व्यक्ति बालापराध से पीड़ित हुआ है, उसका मत बालापराधी के प्रति आक्रामक होता है। उसका मत रहता है कि अपराधी को दण्ड अवश्य मिलना चाहिए।


(7) बालापराधी की दृष्टि से - बालापराधी स्वयं का विश्लेषण करे तो उसे कई तथ्य मालूम होते हैं। वह अपराध करने में आनंद अनुभव करता है या मन्द बुद्धि होने के कारण उस समस्या के महत्त को नहीं समझता है।


वास्तविकता यह है कि बालापराध समाज का जटिल व्यवहार है। प्रश्न यह है कि बालापराध होता कैसे है ? यह सत्य है कि 95% बालापराध सीखे जाते हैं। बालापराध अनुकरण से सीखा जाता है। घर में परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा किये गये अमान्य व्यंवहार को देखने से उसे प्रेरणा प्राप्त होती है। चोरी तथा धूम्रपान इसी प्रकार सीखे जाते हैं।


शिक्षकों को बालापराध के प्रति विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को अपनाना चाहिए । कार्य तथा कारण की खोज करके निदानात्मक उपायों को अपनाना चाहिए।

 

बालापराधी संवेगात्मक ग्रन्थियों के कारण ठीक उसी प्रकार समाज द्वारा मान्य व्यवहार सीखने में असमर्थ रहा है। जैसे - वह इनके कारण पढ़ने में सन्तोषप्रद प्रगति नहीं कर सका है। यदि अध्यापक उन अवस्थाओं का पता लगावें जिनके कारण बालापराध की उत्पत्ति होती है, तो वे ऐसे कारण पायेंगे जो बालक के अन्य प्रकार के विकास के लिये उत्तरदायी हैं: जैसे - भग्न परिवार, निर्धनता, लचीला-सामाजिक-समायोजन, संवेगात्मक तनाव, मानसिक विकास, पिछड़ापन आदि।


यह आवश्यक हो जाता है कि इस बात का पता लगाया जाये कि कुछ बालक इन दशाओं में अपराधी क्यों बन जाते हैं, जबकि दूसरे बालक उन्हीं दशाओं में समाज द्वारा मान्य व्यवहार सीखते हैं। हमें यह प्रयत्न करने की आवश्यकता है कि बालकों को किस प्रकार ऐसे कार्य सीखने से रोका जाये तथा किस प्रकार उन्हें उचित सामाजिक व्यवहार सिखाया जाये ।


बालापराधी के बारे में कहा जाता है कि वे पलायनवादी हैं तथा समाज के प्रति आक्रामक होते हैं। मन के असन्तोष को वे किसी-न-किसी प्रकार व्यक्त करते हैं, परन्तु यह धारणा उचित प्रतीत नहीं होती क्योंकि लगभग 80% बालापराधी ऐसे पाये जाते हैं, जो दूसरों के साथ सम्बन्धित होते हैं। विवाह को छोड़कर और कोई सम्बन्ध इतना सामाजिक नहीं, जितना बालापराध क्योंकि या तो विवाह के बाद पति-पत्नी के एक साथ रहने के सम्बन्ध इतने व्यवस्थित होते हैं या बालापराधियों के । बालापराधियों में दल की भावना काम करती है और उनका अपना विधान होता है, नियम होते हैं तथा रहने का अपना ढंग होता है। इसी कारण हम उन्हें समाज विरोधी तो नहीं कह सकते, हाँ हम उन्हें अपने समाज का विरोधी अवश्य कह सकते हैं। अपने समाज के प्रति वे किसी भी प्रकार की विरोधी भावनायें नहीं रखते अपितु उसके नियमों के प्रति भी असन्तोष रखते हैं और उन्हें समाज विरोधी कहना उचित नहीं।


व्यावहारिक दृष्टि से सभी बालापराधी आक्रामक होते हैं, किन्तु उन्हें आक्रामक की समस्या के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता, क्योंकि इनका व्यवहार उनसे भिन्न होता है। इसलिए आवश्यक है कि हम वातावरण के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलें। बालापराधियों की अच्छी बातों तथा गुणों को जाने का प्रयत्न करें । यह देखें कि बालापराध हमारी तथा समाज की किन अवस्थाओं की ओर संकेत कर रहा है।


अध्ययन का महत्त्च (Importance of Study)

 

बालापराध की समस्या का अध्ययन आज प्रत्येक अध्यापक, समाज सुधारक, प्रशासक आदि के लिये महत्चपूर्ण बन गया है। इसके अध्ययन का महत्त्व निम्न प्रकार है -


(i) बालकों की प्रकृति का ज्ञान - बच्चे किस प्रकार के अपराध करते हैं और किस प्रकृति के वे बालक होते हैं, यह जानकारी बालकों को हो जाती है। उनकी प्रकृति समझकर बालापराधी का उपचार किया जा सकता है।


(ii) रोकथाम - बालापराध और उससे सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन करके उनकी रोकथाम की जा सकती है। कारणों का पता चलाकर हम भावी पीढ़ी में बालापराधी प्रवृत्ति को समाप्त नहीं तो कम अवश्य कर सकते हैं।


(iii) सुधार - बालापराध के ज्ञान से हमें यह ज्ञात हो जाता है कि समाज तथा व्यक्ति में कमी कहाँ पर है। यदि बालक विद्यालय से भागता है, तो इसका अर्थ है - विद्यालय में कमी होना। इसी प्रकार अन्य कारणों का पता लगाकर उनमें सुधार किये जाने की सम्भावना अधिक होती है।



बाल-अपराध का स्वरूप
(NATURE OF DELINQUENCY)

 

बाल-अपराध के स्वरुप को हम उन अपराधों से सरलतापूर्वक समझ सकते हैं, जिनको बालक या किशोर करते हैं। इस प्रकार के कुछ अपराध हैं - चोरी करना, झूठ बोलना, नशा करना, जेब काटना, झगड़ा करना, चुनौती देना, सिगरेट पीना, व्यभिचार करना, तोड़-फोड़ करना, दूसरों पर आक्रमण करना, विद्यालय से भाग जाना, अपराधियों के साथ रहना, कक्षा में देर से आना, छोटे बालकों को तंग करना, बड़ों के विरुद्ध विद्रोह करना, दिन और रात में निरुद्देश्य घूमना, बस और रेल में बिना टिकट यात्रा करना, दीवारों पर उचित या अनुचित बातें लिखना, जुए के अड्डों और शराबखानों में आना-जाना, चोरों, डाकुओं, आवारा, बदचलन और दुष्ट व्यक्तियों से मिलना-जुलना माता-पिता की आज्ञा के बिना घर से गायब हो जाना, सड़क पर चलते समय उस पर चलने के नियमों (Traffic Rules) का पालन न करना, किसी की खड़ी हुई मोटरकार में बैठकर सैर के लिए चल देना आदि-आदि।



बाल-अपराधी की विशेषताएँ
(CHARACTERISTICS OF DELINQUENT)


(A) कलासमेयर एव गुडविन (Klausmeier and Goodwin)  के अनुसार

(1) गठा हुआ और पुष्ट शरीर,

(2) जिद्दी, स्वार्थी, साहसी, बहिर्मुखी, अपराधी, विनाशकारी, आक्रमणः कारी,

(3) प्रेम, ज्ञान, नैतिकता और संवेगात्मक सन्तुलन से रहित परिवार का सदस्य,

(4) संभोग में क्रूरता, व्यवहार में व्याकुलता और सामाजिक स्थिति प्राप्त करने की उत्सुकता,

(5) शीघ्र क्रुद्ध होना, दूसरों का विरोध करना, दूसरों को चुनौती देना, दूसरों पर सन्देह करना, समाज-विरोधी कार्य केरना, अधिकारियों की आज्ञा न मानना, समस्या को उचित विधि से हल न करना।


(B) एलिस (Ellis) के अनुसार-अध्ययन में मन न लगना, औसत छात्रों 'से कम पढ़ना, बालकों और बालिकाओं का अनुपात क्रमशः 80 और 20 होना।

 

(C) कुप्पूस्वामी (Kuppuswamy) के अनुसार-अपराधी बालक के चरित्र की मुख्य विशेषता यह है कि वह वर्तमान आनन्द के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं और भविष्य की चिन्ता नही करता है।



बाल-अपराध के कारण
(CAUSES OF DELINQUENCY)


मेडिनस व जान्सन का मत है - सामाजिक समस्या के रूप में बाल-अपराध में वृद्धि होती हुई जान पड़ती है। यह वृद्धि कुछ तो जनसंख्या की सामान्य वुद्धि के परिणामस्वरूप और कुछ जनसंख्या के अधिक भाग के ग्रामीण वातावरण के बजाय शहरी वातावरण में रहने के परिणामस्वरूप हो रही है।


"Delinquency, as a sbcial problem, appears to be on the increase. Some of this increase results from a general increase in population, and some of it results from the fact that an increasingly high proportion of the population lives in urban rather than rural environment


-Medinnus and Johnson


हम इस वुद्धि की व्याख्या, बाल-अपराध के कारणों के आधार पर ही कर सकते हैं। ये कारण निम्नलिखित हैं


1. आनुवंशिक कारण (Hereditary Causes)


2. शारीरिक कारण (Physiological Reasons)


3. मनोवैज्ञानिक कारण (Psychological Reasons)


4. सामाजिक कारण (Social Reasons)


5. पारिवारिक कारण (Family Related Causes)

 

6. विद्यालय-सम्बन्धी कारण (School Related Causes)


7. संवाद-वाहन के साधन (Media of Communication)


8. सांस्कृतिक कारण (Cultural Factors)


हम इन कारणों का वर्णन इन्हीं शीर्षकों और उप-शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत कर रहे हैं यथा


1. आनुवंशिक कारण (Hereditary Causes)


1. अपराधी-प्रवृत्ति (Criminal Tendency) - अनेक मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बाल-अपराधियो का जन्म होता है । इन मनोवैज्ञानिकों में लोम्ब्रोसो, माडसले (Lombroso, Maudsley) और डगडेल (Dugdale) विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। उन्होंने अपने अन्वेषणों से सिद्ध किया है कि बालकों को अपराधी-प्रवृत्ति अपने माता-पिता से वंशानुक्रम द्वारा प्राप्त होती है। इसीलिए, वैलेनटीन ने लिखा है - आनुवंशिक लक्षण, अपराधी प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करते हैं ।


2. उत्पादक गुण-सुत्र (Chromosomes) - मेडिनस व जान्सन ने लिखा है कि व्यक्तियों में साधारणतः दो प्रकार के उत्पादक गुण-सूत्र (Sex Chromosomes) होते है - स्त्रियों में xx और पुरुषों में XY। असाधारण दशाओं में कृछ स्त्रियों में केवल x गुण-सूत्र और मनुष्यों में XYY गुण-सूत्र होते हैं। ऐसे मनुष्य बाल-अपराधियों को जन्म देते हैं।


3. शारीरिक रचना (Physical Structure) - बालक की शारीरिक रचना का आधारभुत कारण उसका वंशानुक्रम होता है । बाल-अपराधियों को अपने वंशानुक्रम से एक विशेष प्रकार की शारीरिक रचना प्राप्त होती है, जिसे मेसोमोर्फिक (Mesomorphic) अर्थात् खिलाडियों का-सा शरीर कहते हैं।

 

इस शारीरिक रचना वाले बालक का शरीर गठा हुआ और पुष्ट (Solid, Closely Knit, Muscular) होता है । ग्लूक एवं ग्लूक (Glueck and Glueck) ने अपनी पुस्तक Physique and Delinquency में अपने स्वयं के अध्ययनों के आधार पर लिखा है कि इस प्रकार की शारीरिक रचना और बाल-अपराध में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।


2. शारीरिक कारण (Physiological Causes)


1. शारीरिक दोष (Physical Defects) - बालक के शारीरिक दोष उसके तिरस्कार का कारण बनते हैं। इस तिरस्कार से उसके आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचती है। फलस्वरुप, वह तिरस्कार का बदला लेने के लिए दूसरों को कष्ट देने और सताने का अपराध करने लगता है । क्लिफोर्ड मैमसैट (Clifford Mamshabt) ने इसका एक उदाहरण दिया है। एक बालक की आँखें कमजोर थी और वह पढ़ नहीं सकता था। दूसरे लड़के उसका मजाक उड़ाते थे। इससे उसके आत्म-सम्मान को चोट लगती थी। अतः उसने चश्मा लगाने वाले लड़कों के चश्मे चुराने आरम्भ कर दिये । पहले तो उसने ऐसा उनको तंग करने के लिये किया, पर धीरे-धीरे उसकी चोरी करने की आदत पड़ गई।


2. यौनांगों का तीव्र विकास (Rapid Development of Sex Organs) - जिन बालकों और बालिकाओं के यौनांगों का तीव्र विकास होता है, वे अनेक प्रकार के काम-सम्बन्धी अपराध करने लगते हैं, जैसे- हस्तमैथुन और सम या विषमलिंग के व्यक्तियों से सम्भोग।


3. मनोवैज्ञानिक कारण (Psychological Causes)


1. निम्न सामान्य बुद्धि (Low Intelligence) - निम्न सामान्य बुद्धि वाले बालकों में अपराधी प्रवृत्ति का सरलता से विकास होता है । वैलेनटीन (Valentine) ने लिखा है कि बर्ट (Burt) ने जिन बाल-अपराधियों का अध्ययन किया, उनमें से 4/5 में औसत से कम बुद्धि थी अर्थात् उनकी बुद्धि-लब्धि 100 से कम थी।


2. मानसिक रोग (Mental Diseases) - बालकों के मानसिक रोग उनको अपराधी बनाने के लिए उत्तरदायी होते हैं। इन रोगों से ग्रस्त बालकों में मानसिक तनाव, विचार शून्यता, असन्तुलन या अन्तर्दन्द् उत्पन्न हो जाता है । ऐसी दशा में वे अपना आत्म-नियंत्रण खोने के कारण अपराध कर बैठते हैं।

 

3. अवरुद्ध इच्छा (Suppressed Desires) - मैक्डूगल (McDougall) ने बताया है कि प्रत्येक मूलप्रकृत्ति के साथ एक संवेग जुड़ा रहता है । उदाहरणार्थ, 'पलायन' (Escape) के साथ 'भय' (Fear) का संवेग सम्बन्ध रहता है । जब मूलप्रवृत्ति अवरुद्ध हो जाती है, तब वह भावना-ग्रन्थि का निर्माण कर देती है । इससे बालक में बेचैनी उत्पन्र हो जाती है। यह बेचैनी उसकी दूसरी इच्छाओं को भी प्रभावित करती है। यही कारण है कि बालक धमकाने पर झूठ बोल सकता है, घर से भाग सकता है और दूसरे पर आक्रमण कर सकता है । दूसरी बात ध्यान देने योग्य यह है कि अवरुद्ध इच्छाओं के कारण चालक में मानसिक संघर्ष उत्पन्न हो जाता है, जो अनेक अपराधों का कारण होता है।


4. निराशा (Frustration) - हरलॉक (Hurlock) ने लिखा है-'आक्रमण, निराशा की सामान्य प्रतिक्रिया है। व्यक्ति जितना अधिक निराश होता है, उतना ही अधिक आक्रमणकारी हो जाता है।" इस कथन के आधार पर हम कह सकते हैं कि निरन्तर निराश रहने वाला बालक आक्रमणकारी बनकर बाल-अपराध का दोषी बनता है।


5. ग्रन्थियां (Complexes) - जिस बालक में 'ग्रन्थियों Complexes) का निर्माण हो जाता है वह थोड़े-बहुत समय के बाद कोई-न-कोई अपराध अवश्य करने लगता है। उदाहरणार्थ 'विमाता-ग्रंथि या 'जीन भावना की ग्रंथि' उसमें प्रतिशोध की भावना उत्पन्न करके उससे कोई भी असामाजिक कार्य करवा सकती है।


6. संवेगात्मक असन्तुलन (Emotional Imbalance) - बाल-अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों में संवेगात्मक असन्तुलन सबसे अधिक महत्चपूर्ण है। संवेगात्मक असुरक्षा, अपर्याप्तता, हीनता की भावना, प्रेम और सहानुभूति का अभाव और कठोर अनुशासन के प्रति पूर्ण समर्पण या उद्दण्ड कार्य न केवल बालक के व्यवहार और व्यक्तित्व को असमायोजित कर देता है, वरन् उसे अपराध के। की भी प्रेरणा देता है । हीली एवं बुनर (Healy and Bronner) ने जिन बाल-अपराधियों का अध्यन किया, उनमें से 91 प्रतिशत ने यह बयान दिया कि उनके जीवन के कटु अनुभवों ने उनमें इतिन संवेगात्मक असन्तुलन उत्पन्न कर दिया था कि वे मानसिक रुप से परेशान हो गये थे।


4. सामाजिक कारण (Social Reasons)

 

1. साथी (Companions) - अकेले बालक बहुत कम अपराध करता है, उसके साथ प्राय कोई-न-कोई होता है। ग्लूक (Glueck) ने अपने अन्वेषणों से सिद्ध किया है कि जिन 500 अपराधी बालकों का उसने अध्ययन किया, उनमें से 95% शराबियों, जुआरियों, व्यभिचारियों और गुंडों की संगति में रहे थे । हीली (Healy) ने बताया है कि अपराधी बालक किसी-न-किसी गुट के सदस्य अवश्य होते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि बालक बुरे साथियों की संगति में पड़कर अपराध करते हैं।


2. अवकाश (Leisure) - यदि बालको को अपना अवकाश (Leisure) बिताने के लिए मनोरंजन या खेल के उचित साधन प्राप्त नहीं हैं, तो उनका अनुचित दिशा में जाना स्वाभाविक होता है। बोगोट (Bogot) ने अपने अध्ययनों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि बाल-अपराध अधिकतर या तो शनिवार और रविवार को होते हैं या 4-5 बजे के बीच में होते हैं। प्रायः इस समय बालक खाली रहते हैं।


3. नागरिक वातावरण (Civic Environment) - आधुनिक नगरों का वातावरण अत्यधिक कृत्रिम, दूषित और अनैतिक है। उनमें बाल-अपराध को प्रोत्साहन देने वाले सभी साधन विद्यामान हैं जैसे - मदिरालय, वेश्यालय, सस्ते मनोरंजन, कामुक चलचित्र, जुआ और सट्टा खेलने के अडडे, लाउडस्पीकरों पर अशलील गाने इत्यादि । जिस बालक पर उसके माता-पिता का पर्याप्त नियंत्रण नहीं होता है, वह इनके प्रभाव से वंचित नहीं रह पाता है । परिणामतः यह कुमार्ग पर चलने लगता है।


4. गन्दी बस्तियाँ (Slums) - मैडिनस एवं जानसन ने लिखा है- 'समाजशास्त्रियों का तर्क है कि अधिकांश बाल-अपराधी गन्दी बस्तियों के होते हैं।" उनके इस कथन को सत्य सिद्ध करने के लिए शॉ एवं मैकी (Shaw and Mackey) ने अमेरिका के लगभग 25 नगरों के बाल-अपराधों का अध्ययन किया। उसके परिणामस्वरूप वे इस निश्कर्ष पर पहुँचे कि गन्दी बस्तियों में बाल-अपराधा की दरें सबसे अधिक थी ।

 

5. युद्ध (War) - युद्ध, बाल-अपराधों को तीन विशेष कारणों से प्रेरणा देते हैं। पहला, जिन बालकों के अभिभावक युद्ध-क्षेत्र में चले जाते हैं, उनकी ठीक देखभाल नहीं हो पाती है। दूसरा, जो मनुष्य युद्ध में मारे जाते हैं, उनमें से अधिकांश के बच्चे असहाय होते हैं। तीसरा, जिन देशे पर बम्म गिराये जाते हैं, उनके अनेक बच्चे अनाथ हो जाते हैं। ये सभी बच्चे अपने उदर की पूर्ति करने के लिए किसी प्रकार का भी अनैतिक कार्य करने में संकोच नहीं करते हैं।


6. देश का विभाजन (Division of Country) - इस कारण का भारत से विशेष सम्बन्ध है। विभाजन से पूर्व यहाँ बाल-अपराधों की संख्या बहुत कम थी । विभाजन के कारण देश में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक झगड़ों का ताँता लग गया । इनमें वयस्कों के अलावा किशोरों ने विशेष रूप से भाग लिया। फलस्वरूप कुछ समय तक बाल-अपराधों की दरों में बहुत तेजी से वृद्धि हुई। इसका अनुमान आगे की तालिका से लगाया जा सकता है।


5. पारिवारिक कारण (Family-Related Causes)


1. भग्न परिवार (Broken Homes) - बरबाद परिवार (Broken Home), से हमारा अभिप्राय उस परिवार से है, जिसे जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कोई साधन उपलब्ध नही होता है। ऐसा उस दशा में होता है, जब धनोपार्जन करने वाले की मृत्यु हो जाती है, या वह परिवार से अपना सम्बन्ध तोड़ देता है या अनैतिकता का मार्ग अपनाकर किसी की चिन्ता नहीं करता है। ऐसी दशा में उसके परिवार के बालक, अपराध करने की ओर प्रवृत्त होते हैं। जानसन (johnson) ने अपराधी बालकों के आँकड़े एकत्र करने पर यह पाया कि उनमें से 52% बरबाद परिवारों के थे।


2. अनैतिक परिवार (Immoral Family) - जिस परिवार में माता-पिता या अन्य सदस्य अनैतिक होते हैं, उसके बच्चे भी उन्हीं के समान होते हैं। मेबिल इलियट (Mable Elliot) ने अमरीका के सलाटन फार्म (Slaten Farm) पर अपराधी लडकियों का अध्ययन करने पर यह पाया कि उनमें 67% लडकियाँ अनैतिक परिवारों की थीं । वैलेनटीन ने लिखा है कि बर्ट (Burt) को अपने अध्ययन में 54% बालक अनैतिक परिवारों के मिले।

 

3. परिवार की निर्धनता (Poverty) - कुप्पुस्वामी (Kuppuswamy) के अनुसार-"अपराधी चरित्र का विकास करने में निर्धनता एक अति महत्चपूर्ण कारक है। अत्यधिक निर्धन परिवार के बालकों को आरम्भ से ही खाने की वस्तुओं की चोरी करने या भीख मॉँगने के लिए बाध्य होना पड़ता है। कुछ परिवार ऐसे होते हैं, जिनमें बालकों और बालिकाओं को भोजन तो मिल जाता है। पर धनाभाव के कारण उनकी अन्य इच्छायें पूर्ण नहीं हो पाती हैं। बालक- पान, सिगरेट, सिनेमा आदि के लिए और बालिकायें- साज-सृंगार करने के लिए धन चाहती हैं। अतः बालक चोरी और बालिकाएँ व्यभिचार करके धन प्राप्त करने लगती हैं। गलुक (Glueck) ने 500 बाल-अपराधियों का परीक्षण करके यह खोज की कि उनमें से 66 ऐसे परिवारों के थे, जिनकी दैनिक आवश्यकताएँ पूरी नहीं होती थी और 252 ऐसे परिवारों के थे, जो बड़ी कठिनाई से अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा कर पाते थे । वैलेनटीन (Valentine) ने लिखा है कि बर्ट (Burt) ने जिन बाल अपराधियों का अध्ययन किया, उनमें से आधे के परिवार निर्धन या अत्यधिक निर्धन थे।


4. परिवार का वातावरण (Family Environment) - यदि बच्चों के भाई-बहन अपराधी हैं यदि उनके माता-पिता उनको कठोर अनुशासन में रखते हैं, यदि परिवार के सदस्य आपस में लड़ते-झगडते हैं, यदि बच्चों पर शिथिल नियन्त्रण है, तो वे अपराध के मार्ग पर चलने लगते हैं। यदि घर में उनके खेलने के लिए स्थान नहीं होता है, तो वे गलियों में घुमने लगते हैं और बुरी संगति में पड़कर अपराधी बन जाते हैं।


5. तिरस्कृत बच्चे (Rejected) - जो बच्चे माता-पिता द्वारा तिरस्कृत (Rejected) होते हैं, वे अपराध की ओर अग्रसर होते हैं। इस तिरस्कार का एक मुख्य कारण सौतेली माता या सौतेले पिता का होना माना जाता है। इन तिरस्कृत बच्चों को उनके प्यार के स्थान पर गलियों में घूमने वाले आवारा लोगों का प्यार मिलता है और वे कुछ समय के बाद उनके द्वारा बताये हुए अपराध को कार्यों को करने लगते हैं।


6. बच्चों के प्रति दुर्व्यवहार - कुप्पूस्वामी (Kuppusamy) के शब्दों में-'बाल-अपराध का सबसे महत्च्पूर्ण कारण बालक द्वारा परिवार के दुर्व्यवहार का अनुभव किया जाना है। यदि बालक को परिवार में बड़े व्यक्तियों द्वारा सदैव डाटा या मारा जाता है, दोष निकाला जाता है और आलोचना की जाती है, तो वह अत्यधिक उदासीन और चिन्ताग्रस्त हो जाता है। वह परिवार से समायोजन करने का प्रयास करता है। जब वह ऐसा करने में असफल हो जाता है, तब विद्रोह कर उठता है और असामाजिक कार्य करने लगता है, जैसे- विद्यालय से भागना या घर से रुपया और आभूषण लेकर गायब हो जाना ।


7. पिता की अनुपस्थिति या मृत्यु (Absence or Death of Father) - यदि पिता, परिवार से बहुत समय तक अनुपस्थित रहता है, तो बालक पर नियन्त्रण शिथिल हो जाता है । स्वतन्त्रता प्राप्त हो जाने के कारण वह घर से बाहर इधर-उधर जाकर बुरी संगति में पड़ जाता है। इसका स्वाभाविक परिणाम होता है-अपराध के मार्ग का अनुगमन करना । पिता की मृत्यु के कारण उसका बाल-अपराधी बनना निश्चित-सा हो जाता है।


6. विद्यालय सम्बन्धी कारण (School Related Causes)

 

1. स्थिति (Situation) - हमारे देश में ऐसे अनेक विद्यालय हैं, जो नगर के दूषित और कोलाहलपूर्ण भागों में स्थित हैं। बालक वहाँ जाते हुए प्रतिदिन विभित्र प्रकार के अमानवीय कृत्य देखते हैं। कुछ बालक उनसे प्रभावित होकर उनको अपने जीवन का अंग बना लेते हैं।


2. नियन्त्रण का अभाव (Lack of Control) - आजकल के विद्यालय, शिक्षा की दुकानें हो गई हैं, जिनमें धन प्राप्त करने के लिए संख्या की ओर ध्यान दिये बिना बालकों को भर लिया जाता है। ऐसे विद्यालयों में बालकों पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं होता है। फलस्वरूप वे अपनी इच्छानुसार कहीं भी घूमने के लिए या सिनेमा देखने के लिये जा सकते हैं। इस प्रकार के बालक क्रमशः बाल-अपराध के मार्ग को ग्रहण करते हैं।


3. खेल व मनोरंजन का अभाव (Lack of Recreation and Games) - इस समय भारतीय नेताओं को शिक्षा का प्रसार करने की धुन सवार है। अतः विद्यालयों को मान्यता प्रदान करने के समय इस बात पर रंचमात्र भी ध्यान नहीं दिया जाता है कि उनके पास बालकों के लिए खेल का पर्याप्त स्थान है या नहीं । विद्यालय भी खेल पर धन व्यय करना मूर्खता समझते हैं। खेल की व्यवस्था न होने के कारण बालकों के अनेक संवेग दमित अवस्था में पड़े रहते हैं, जो उभरने पर अति घातक सिद्ध होते हैं। वे बालकों को न केवल असमायोजित कर देते हैं, वरन् उनको विविध प्रकार के अपराध करने के लिए भी प्रेरित करते हैं।


4. परीक्षा-प्रणाली (Examination System) - हमारे विद्यालयों के छात्रों की परीक्षा लेने के लिए जिस प्रणाली का प्रयोग किया जाता है, उसमें कितने ही दोष हैं। यह प्रणाली मुख्य रूप से बालकों को परीक्षा-भवनों में अनुचित साधनों का प्रयोग करने का अवसर देती है। यदि उनको ऐसा करने से रोका जाता है, तो वे मार-पीट, यहाँ तक कि हत्या भी कर देते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ बालक ऐसे भी होते हैं, जो परीक्षा में असफल होने के कारण घर से भाग जाते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि हमारी परीक्षा-प्रणाली, बाल-अपराधों को बढावा देने का कार्य कर रही है।


5. व्यक्तिगत स्कूल (Individual School) - एच. जी. वेल्स (H. G. Wells) ने व्यक्तिगत स्कूलो के बारे में लिखा है-'यदि आप इस बात का अनुभव करना चाहते हैं कि पीढ़ियों के बाद पीढ़ियाँ किस प्रकार पहाडी नदियों के वेग से विनाश की ओर बढ़ रही हैं, तो आप किसी प्राइवेट स्कूल को ध्यान से देखिए।' ये स्कूल, बालकों के शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक विकास के लिए उपयुक्त सुविधायें नहीं जुटाते हैं। फलतः अनेक बालकों का विकास विकृत रूप धारण कर लेता है और वे पक्के बाल-अपराधी बन जाते हैं।


7. संवाद-वाहन के साधन (Media of Communication)

 

1. प्रहसन की पुस्तकें (Comic Books) - प्रहसन की पुस्तकों (Comic Books) का मुख्य उदेश्य-बालकों का मनोरंजन करना है। इन पुस्तकों की विषय-सामग्री काल्पनिक होने के अलाव आक्रमणकारी और उत्तेजित करने वाली घटनाओं पर आधारित होती है।


2. सस्ते उपन्यास व पत्रिकाए (Cheap Novels and Magazines) - सस्ते उपन्यासों और पत्रिकाओं का मुख्य विषय युवकों और युवतियों का यौन सम्बन्ध पर आधारित प्रेम होता है। अतः हीली (Healy) और ब्रूनर (Bronner) ने उनको बाल-अपराधों के लिए उत्तरदायी ठहराया है।


3. चलचित्र (Movies) - ब्लमर एव हौजर (Blumer and Hauser) ने लिखा है कि चलचित्र-धन प्राप्त करने की अनुचित विधियों का सुझाव देकर, कामवासनाओं को भड़का कर और कुत्सित कार्यों को प्रदर्शित करके बाल अपराघों में अतिशय योग देते हैं। ब्लुमर (Blumer) ने लिखा है-"सन् 1933 में इलिनौइस (Ilinois) नगर में “The Wild Boys of the Road' नामंक चलचित्र के प्रदर्शित होने के एक मास के अन्दर ही 14 बच्चे घर से भाग गये । इनमें एक 15 वर्ष की लड़की थी, जो बिल्कुल उसी प्रकार के वस्त्र पहने हुए थी. जैसे उस चलचित्र की प्रमूख नायिका ने पहन रखे थे ।


4. टेलीविजन (Television) - टेलीविजन के सम्बन्ध में अब तक तीन विस्तृत अध्ययन हुए है-1958 में इंगलेण्ड में, 1961 में अमरीका में और 1962 में जापान में। इन अध्ययनों के आधार पर इसको बाल-अपराधों के लिए चलचित्र से अधिक दोषी ठहराया गया है। बैना, मैडीनस एवं जानसन का विचार है- मैं विश्वास करता हूँ कि तरुण और परेशान किशोरों के लिए टेलीविजन, बाल-अपराध का प्रारम्भिक प्रशिक्षण केन्द्र है।


8. सांस्कृतिक कारक (Cultural Factors)


आधुनिक युग में हमारे जीवन के समान हमारी संस्कृति भी कृत्रिम हो गई है। उसके अर्थ और महत्त्व का लोप हो गया है। वह वयस्कों, किशोरों और बालकों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असफल हो रही है। अतः बालक और किशोर उससे अपना सम्बन्ध-विच्छेद करके समाज-विरोधी कार्यो में संलन्न होते हुए दिखाई दे रहे हैं ।



बाल-अपराध का निवारण
(PREVENTION OF DELINQUENCY)

 

बाल-अपराध के निवारण, निरोध या रोकने के लिए परिवार, विद्यालय, समाज और राज्य अनेक महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं, यथा


1. परिवार के कार्य (Functions of Family)


1. उत्तम वातावरण (Good Environment) - परिवार का वातावरण उसके सदस्यों के पारस्परिक सहयोग, समायोजन और सहानुभूति का आदर्श प्रतीक होना चाहिए । ऐसा वातावरण बाल-अपराध का घोर शत्रु होता है ।


2. वृद्धि पर नियन्त्रण (Control over Increase) - छोटा परिवार सुखी परिवार होता है। क्योंकि ऐसे परिवार के सदस्यों में एक-दूसरे के प्रति आत्मभीयता और निकटता की भावना होती है। अतः उसमें बाल-अपराध का जन्म होना कठिन है।


3. बालकों का निर्देशन (Guidance) - बालक, ज्ञान और समझदारी की कमी के कारण बाल-अपराध की ओर अग्रसर होते हैं। अतः उनके माता-पिता को शिक्षा, चित्रों, मनोरंजन आदि के सम्बन्ध में उनका पग-पग पर निर्देशन करना चाहिए । इस प्रकार निर्देशन प्राप्त करने वाले बालको से बाल-अपराध की आशा नहीं की जाती है।


4. बालकों का निरीक्षण (Supervision) - माता-पिता को अपने बालकों के मध्य प्रतिदिन कुछ समय व्यतीत करके उनकी गतिविधियों का निरीक्षण करना चाहिए और आवश्यकता पड़ने पर उनको परामर्श भी देना चाहिए । ऐसे माता-पिता की सन्तान कुमार्ग पर नहीं चलती है।


5. बालकों के प्रति उचित व्यवहार (Proper Behaviour) - माता-पिता को बालकों के प्रति उचित व्यवहार करना चाहिए । उन्हें न तो अधिक लाड़-प्यार करके बालकों को बिगाडना चाहिए और न अधिक कठोर अनुशासन में रखकर उनकी इच्छाओं का दमन करना चाहिए। इस प्रकार का व्यवहार पाने वाले बालकों में अपराध-प्रवृत्ति का विकास नहीं होता है।

 

6. बालकों के अध्ययन की व्यवस्था (Study Arrangement for Children) - परिवार में बालकों के अध्ययन के लिए उचित व्यवस्था होनी चाहिए । इस उद्देश्य से उनके लिए शान्त और एकान्त स्थान सुरक्षित होना चाहिए । ऐसे स्थान में अध्ययन करके उनके मस्तिष्क का क्रमिक विकास होता चला जायगा, जो उनको बाल-अपराध की हानियों से अवगत करायेगा।


7. बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति (Satisfaction of Child Needs) - माता-पिता को बालकों की सभी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए। ऐसा न करने से बालक उनकी पूर्ति के लिए अनुचित उपायों का प्रयोग करके बाल-अपराध के दोषी बन जाते हैं।


8. बालकों के दैनिक व्यय की पूर्ति (Satisfaction of Daily Expenses) - बालकों को अपने दैनिक व्यय के लिए कुछ धन की आवश्यकता होना स्वाभाविक है। माता-पिता को अपनी आय को ध्यान में रखकर उनको दैनिक व्यय के लिए कुछ धन अवश्य देना चाहिए । ऐसा न करके वे स्वयं बालकों को धन की चोरी करने की शिक्षा देते हैं।


9. बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण (Good Habits) - माता-पिता को बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण करना चाहिए । ऐसी आदतों वाले बालक अनुचित कार्य करके अपराधी कहे जाने से घृणा करते हैं।


10. बालकों में आत्म-निर्भरता का विकास (Self dependence) - माता-पिता को बालकों में आत्म-निर्भरता के गुण का अधिक-से-अधिक विकास करना चाहिए । इस गुण वाले बालक अपनी आवश्यकताओं को स्वयं कार्य करके पूर्ण करने का प्रयास करते हैं और अनुचित उपायों को नहीं अपनाते हैं।


2. विद्यालय के कार्य (Functions of School)

 

1. उत्तम वातावरण (Proper Environment) - विद्यालय को बालकों का शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक और संवेगात्मक विकास करने के लिए उत्तम वातावरण का निर्माण करना चाहिए।


2. बालकों की स्वतन्त्रता (Freedom to Children) - विद्यालयों को बालकों की क्षमताओं औ योग्यताओं का विकास करने के लिए उनको स्वतन्त्रता प्रदान करनी चाहिए । पर यह स्वतन्त्रता नियंत्रित और निश्चित सीमाओं के अन्तर्गत होनी चाहिए।


3. तरुण गोष्ठियोँ की स्थापना (Youth Clubs) - विद्यालय में तरुण गोष्ठियोँ (Youth Clubs) की स्थापना की जानी चाहिए । वैलेनटीन (Valentine) के अनुसार, ये गोष्ठियाँ बालकों को अपनी रुचियों और क्षमताओं को अभिव्यक्त करने का अवसर प्रदान करती हैं।


4. व्यक्तिगत विभिनताओं का विकास (Development of Individual Differences) - विद्यालयों को बालकों की व्यक्तिगत विभिन्रताओं का अध्ययन करके उनके अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए । ऐसा करके वह बालकों की विभिन्र योग्यताओं का विकास करने में सफलता प्राप्त कर सकता है।


5. अच्छे पुस्तकालय की व्यवस्था (Good Library) - विद्यालय में सभी प्रकार की बालोपयोगी पुस्तकों से सुसज्जित अच्छा पुस्तकालय होना चाहिए। साथ ही, बालकों को पुस्तकालय का सदुपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।


6. उपचारात्मक व व्यावसायिक कक्षाए Clinical and Vocational Classes) - विद्यालयों द्वारा बाल-अपराध का निवारण करने के लिए एक नई विधि के प्रयोग का सुझाव देते हुए मैडीनस एवं जानसन ने लिखा है-"उपचारात्मक शिक्षा की कार्यों कुुछ व्यावसायिक कक्षायें लाभप्रद सिद्ध हो सकती हैं।

 

7. पाठयक्रम-सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था (Cocurricular Activities) - बालकों में सामाजिक सम्बन्धों का विकास करने के लिए विद्यालय में पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाओं की उत्तम व्यवस्था होनी चाहिए । एलिस का मत है- बाल-अपराधियोँ को पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाओं में सम्मिलित करने का विशेष प्रयास किया जाना चाहिए, क्योंकि इनसे उत्तम सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना होती है।


8. अनुत्तीर्ण होने की समस्या का समाधान (Solution of Failure) - परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के कारण कुछ छात्र, बाल-अपराधी बन जाते हैं। अतः एलिस का सुझाव है- कि हम सफलता की समस्या का समाधान करना चाहते हैं, तो हमें छात्रों का वर्गीकरण करना चाहिए और पाठ्यक्रम एवं शिक्षण-विधियों में इस प्रकार सुधार करना चाहिए कि छात्र जो कुछ भी करें, उसमें सफल हों।


9. वांछनीय सामाजिक दृष्टिकोणों का विकास (Development of Social Outlook) - एलिस का मत है- बाल-अपराध का मुख्य कारण अवांछनीय सामाजिक दृष्टिकोणों का विकास है। विद्यालय, सामाजिक दृष्टिकोणों के प्रति अधिक ध्यान देकर और विद्यालय से बाहर उपयुक्त क्रियाओं का आयोजन करके इस दिशा में बहुत कुछ कर सकता है।


10. योग्य शिक्षकों की नियुक्ति (Appointment of Able Teachers) - विद्यालयों में नियुक्त किये जाने वाले शिक्षकों में निम्नांकित विशेषताएँ होनी चाहिए-

(1) उनको बाल-मनोविज्ञान का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए, ताकि उनको बालकों की रुचियों, इच्छाओं और अभिवृत्तियों को समझने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो ।

(2) उनको बालकों के प्रति प्रेम और सहानुभुति का व्यवहार करना चाहिए ।

(3) उनको बालकों का मित्र, सहायक और पथ-प्रदर्शक होना चाहिए ।

(4) उनको नवीनतम शिक्षण-विधियों और शिक्षण के उपकरणों के प्रयोग में कुशल होना चाहिए।

(5) उनको बालकों की समस्याओं का समाधान करने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।


3. समाज व राज्य के कार्य (Punctions of Society and State

 

1. बालकों की राजनीति से पृथकता (Separation from Politics) - राजनैतिक दल, बालकों को अनेक अनुचित कार्यों के लिए प्रयोग करके अपराध की ओर ले जाते हैं। अतः राज्य को कानून बनाकर 18 वर्ष तक की आयु के बालकों पर राजनैतिक कार्यों मे भाग लेने पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए ।


2. मनोरंजन की व्यवस्था (Recreation) - समाज को बालकों के लिए मनोरंजन की उपयुक्त व्यवस्था करनी चाहिए, ताकि वे अपने अवकाश का उचित उपयोग कर सकें।


3. निर्धन बालकों की आर्थिक सहायता (Financial Help) - जो बालक निर्धन हैं, उनकी सम्पूर्ण शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिए। साथ ही, उनको अपनी शिक्षा के व्यय के लिए आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए।


4. निर्धन परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार (Improvement in Economic Condition) - बालकों द्वारा अपराध किंये जाने का एक मुख्य कारण उनके परिवारों की निर्धनता है । अतः राज्य द्वारा इन परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार किया जाना चाहिए ।


5. चलचित्रों पर नियंत्रण (Control over Movies) - चलचित्र, बालकों की अपराध-प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने में विशेष योग देते हैं। अतः राज्य द्वारा अपराधी और अनैतिक कार्योँ का प्रदर्शन करने वाले चलचित्रों पर कड़ा नियंत्रण आरोपित किया जाना चाहिए ।


6. सामूहिक संघों का निर्माण (Organisation of Associations) - प्रत्येक नगर के विभित्र भागों के बालकों और किशोरों के सामूहिक संघों का निर्माण किया जाना चाहिए। इन संघों को किशोरों को सम्मिलित रूप से सामाजिक कार्य करने की प्रेरणा देनी चाहिए । इस प्रकार का सामूहिक कार्य उनमें सामाजिक समायोजन का विकास करेगा और साथ ही उनके व्यवहार को स्वस्थ दिशा में मोडेगा ।


7. गन्दी बस्तियों की समाप्ति (Removal of Slums) - गन्दी बस्तियाँ, बाल-अपराधों के जन्म और विकास के लिए कुख्यात हैं। अतः इन बस्तियों को यथाशीघ्र समाप्त किया जाना चाहिए। यही कारण है कि सभी बड़े नगरों में यह कार्य किया जा रहा है।।

 

8. अनैतिक कार्यो पर प्रतिबन्ध (Control over Immorality) - अनैतिक कार्योँ को बाल-अपराध की जननी कहा जा सकता है। अतः समाज को अनैतिकता से मुक्त करने के लिए सभी सम्भव प्रयास किये जाने चाहिए। इसी उद्देश्य से अनेक नगरों में वेश्यालयों को हटा दिया गया है और बम्बई, बंगाल, मद्रास आदि राज्यों में 'किशोर धुम्रपान अधिनियम' (Juvenile Smoking Act) बनाकर 16 वर्ष से कम आयु के बालकों को ध्ग्रपान करने का निषेध कर दिया गया है।



बाल-अपराध का उपचार
(TREATMENT OF JUVENILE DELINQUENCY)


बाल-अपराध का उपचार करने के लिए दो प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जा सकता है


(1) मनोवैज्ञानिक और 

(2) वैधानिक


इनका संक्षिप्त वर्णन दृष्टव्य है


1. मनोवैज्ञानिक विधियाँ (Psychological Methods)


1. मनोविश्लेषण (Psycho-Analysis) - इस विधि में मनोविश्लेषक द्वारा अपराधी बालक के अचेतन मन का अध्ययन करके उसके दमित संवेगों और इच्छाओं का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। तदूपरान्त वह इनका विश्लेषण करके बालक द्वारा अपराध किये जाने के कारणों को जानने का प्रयास करता है । इस विधि की सफलता बालक के सहयोग पर निर्भर रहती है। अतः उसका सहयोग न मिलने पर मनोविश्लेषक को सफलता नहीं मिल पाती है।


2. मनो-अभिनय (Psycho-Drama) - इस विधि में बाल-अपराधी को अपनी इच्छा के अनुसार किसी प्रकार का अभिनय करने का अवसर दिया जाता है। अभिनय करते समय वह अपने विभित्र संवेगों, विचारों, मानसिक संघर्ष आदि को स्वतन्त्रतापूर्वक व्यक्त करता है। फलतः कुछ समय के बाद वह मानसिक शान्ति का अनुभव करता है और उसका व्यवहार सन्तुलित हो जाता है।


3. खेल द्वारा चिकित्सा (Play Therapy) - बाल-अपराध का एक मुख्य कारण यह है कि बालक को अपनी रचनात्मक प्रवृत्ति को अभिव्यक्त करने का अवसर नहीं मिलता है। परिणामतः इस प्रवृत्ति का दमन हो जाता है, जो अवसर मिलने पर विनाशकारी कार्यों के रूप में प्रकट होती है।


खेल द्वारा चिकित्सा में बालक को अपनी रचनात्मक प्रवृत्ति के अनुसार कोई भी वस्तु बनाने का अवसर दिया जाता है । इससे बालक की रचनात्मक प्रवृत्ति संतुष्ट हो जाती है और उसके मन का विकार दूर हो जाता है। बाल-अपराधियों का उपचार करने में यह विधि बहुत सफल हुई है।


2. वैधानिक विधियाँ (Legal Methods)

 

1. कारावास (Confinement) - बाल-अपराध का परम्परागत उपचार है- कारावास। इससे केवल एक लाभ होता है । वह यह है कि कारावास में रहे बालक को जैसे-जैसे बन्दी की आयु में वुद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे उसके व्यवहार में परिवर्तन होता जाता है । परिणामतः कारावास से मुक्त होने के पश्चात् उसकी अपराधी-प्रवृत्ति निर्बल हो जाती है। ग्लुक एवं ग्लूक (Glueck and Glueck) ने अपने अध्ययनों से सिद्ध किया है कि अनेक बाल-अपराधी 40 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर अपराधी नहीं रह जाते हैं। मैडीनस एवं जानसन (Medinnus and Johnson) ने लिखा है- अपराध का सम्बन्ध युवक से है। अतः अधिकांश किशोर-अपराधी, अपराधी-वयस्क नहीं बनते हैं।


2. किशोर-न्यायालय (Juvenile Courts) - जब कोई बालक या किशोर अपराध करता है, तब उसे साधारण न्यायालय में न ले जाया जाकर, किशोर-न्यायालय में ले जाया जाता है। न्यायालय का वातावरण सहानुभूतिपूर्ण होता है। न्यायाधीश इस बात पर विचार करता है कि बालक का सुधार किस प्रकार किया जा सकता है। वह दो प्रकार की आज्ञायें देता है। उनके अनुसार अपराधी को या तो ‘सुधार-अधिकारी' (Probation Officer) के पास या 'सुधार-गृह' में भेज दिया जाता है। इस समय भारत के अनेक राज्यों में किशोर-न्यायालय हैं, जैसे- दिल्ली, बंगाल, बम्बई, मद्रास आदि।।


3. प्रवीक्षण (Probation) - प्रवीक्षण या प्रोबेशन वह युक्ति है, जिसमें बाल-अपराधी को न्यायालय से दण्ड मिलने पर जेल न भेजकर कुछ शर्तो पर समाज में रहने की आज्ञा मिल जाती है । इस प्रकार, बालक को अपना सुधार करने का अवसर दिया जाता है। प्रोबेशन काल में उसे ‘सुधार-अधिकारी' के निरीक्षण में रहना पडता है । यह अधिकारी मित्र और संरक्षक के रूप में बालक में सुधार करने का प्रयास करता है। यदि प्रोबेशन काल में बालक में सुधार हो जाता है, तो उसे जेल नहीं जाना पड़ता है। इस समय भारत में उत्तर प्रदेश, मद्रास, बम्बई आदि के अनेक जिलों में ‘सुधार अधिकारी' हैं।


4. किशोर-बन्दीगृह (Juvenile Jails) - ये बन्दीगृह वास्तव में सुधार संस्थायें हैं। इनके बन्दियों को अपने परिवार के सदस्यों से मिलने की स्वतन्त्रता होती है। वे बन्दीगृह में सामान्य और औद्योगिक शिक्षा प्राप्त करते हैं। उसको समाप्त करने के बाद वे नगर के किसी विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए जा सकते हैं। इस समय हमारे देश में उत्तर प्रदेश में बरेली, उड़ीसा में अंगुल और बिहार में पटना किशोर-बन्दीगृह हैं।


5. किशोर-सुधारगृह (Juvenile Reformatories) - ये एक प्रकार के औद्योगिक विद्यालय हैं, जहाँ बाल-अपराधियों को सुधारने का कार्य किया जाता है और सामान्य एवं व्यावसाथिक शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार के सुधारगृह- लखनऊ, बरेली, पूना, सतारा, नासिक, शोलापूर, धारवाड़ आदि में हैं।


6. बोर्स्टल संस्थायें (Borstal Institutions) - ये संस्थायें बन्दीगृह और मान्यता-प्राप्त स्कूलों के बीच की संस्थायें हैं । इनमें साधारणतः 15 से 20 वर्ष तक की आयु के अपराधी रखे जाते हैं। ये संस्थायें दो मूख्य कार्य करती हैं। ये बाल-अपराधियों को सुधारती हैं और उनको इस प्रकार की औद्योगिक या व्यावसायिक शिक्षा देती हैं कि वे जीवन में धनोपार्जन करने में सफल हो सकें। भारत में ये संस्थायें अग्रलिखित स्थानों में हैं- मद्रास में पालकोट, बंगाल में बेहरामपूर और बम्बई में धारवाड़। मैसूर और मध्य भारत में एक-एक बोर्स्टल संस्था है।

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